Saturday, April 10, 2010

ये खता है या वफ़ा ?

चलने के वादे थे, हम साथ चलते गए,
ये कैसे हुआ, हम तेरे क्यूँ हो गए |

रास्ते बहुत सीधे थे तुम्हारी मंजिल के,
फिर रास्तों में ही हम क्यूँ खो गए |

तुझे अपना मान बैठे, उफ़ क्या खता की
किसी की अमानत हो, ये कैसे भूल गए |

बस फानूस ही थे, शमा की हिफाज़त को,
उस शमा के कैसे हम, परवाने बन गए |

रिश्ता तो दोस्ती का भी ना था तुमसे,
यूँ ही कैसे, जन्मों के नाते बन गए |

ना जाने, दिल ने ये खता की, या वफ़ा,
इस दिल के ज़ख़्म भी तुझे दुआ दे गए |

वादा था की, ज़ज्बाती नहीं होंगे,
पर न जाने कैसे आँखों से आंसूं बह गए |

तुम्हारा शिकवा, शायद जायज़ हो हमसे,
हम क्या करें, जब हमारे रास्ते जुड़ गए |

क्या अब चलें मंजिल की जानिब ?
कारवां तो निकल गया, हम पीछे रह गए |

1 comments :

Shikha said...

एक मासूम सी मोहब्बत का बस इतना सा फ़साना है.
कागज़ की हवेली है, बारिश का ज़माना है........
क्या शर्त-ए-मोहब्बत है, क्या शर्त-ए-ज़माना है.
आवाज़ भी ज़ख़्मी है, और वो गीत भी गाना है.................
उस पार उतरने की उम्मीद बहुत कम है
कश्ती भी पुरानी है , तुफा को भी आना है........
समझे या न समझे वो अंदाज़ मोहब्बत के
एक खास शख्स को आँखों से एक शेर सुनाना है
भोली सी अदा, फिर आग का दरिया है और डूब के जाना है...........

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