Wednesday, April 7, 2010

ऐ ज़िन्दगी तू क्या चाहती है

माना ऐ ज़िन्दगी तू जीने देती है,
पर क्यूँ इतनी बेरहम होती  है |

देती है खुशियाँ मानता हूँ,
मगर उससे ज्यादा दर्द क्यूँ  देती है |

एक कदम चल भी नहीं पाते,
क्यूँ चलने के सहारे छीन लेती है |

दिया तो तूने कभी कुछ भी नहीं,
पर हाँ, हंसने के बहाने लूट ज़रूर लेती है |

क्या बस चले तुझ पे ज़िन्दगी, 'नूर' का,
दिल भी देती है, और खुद दिल तोड़ भी देती है |

1 comments :

Shikha said...

इसी का नाम तो ज़िन्दगी है दोस्त :)

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