Wednesday, March 31, 2010

अंतर्मन द्वंद : एक पंथी, एक प्रेमी और एक मित्र

कर्म रथ है चलता रहता,
कर्म पथ है बदलता रहता,
ऐ पंथी तू काहे को घबराता |

समय चक्र यूँ चलता रहता,
सुख दुःख आता जाता रहता,
ऐ पंथी तू काहे को घबराता |

जैसे जाने का वक़्त निकट है ,
क्षण मिलन का भी तो पास है आता |
ऐ प्रेमी तू काहे को घबराता |

विरह अगर नहीं प्रेम में,
तो बोलो प्रेम में क्या रह जाता |
ऐ प्रेमी तू काहे घबराता |

हर पल जब तू उसको साथ है पाता,
हर सुख दुःख वो तेरे साथ बांटता,
ऐ मित्र तू काहे घबराता |

उससे दूर जाने का या  बात न कर पाने का,
ऐ मित्र, बोल तुझे कौनसा डर सताता |
ऐ मित्र तू काहे घबराता |

2 comments :

Sandesh Dixit said...

bahut hi sundar !!!

Shikha said...

अति उत्तम

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