Saturday, March 20, 2010

उल्फ़त की उलझन

लड़ रहा हूँ ना जाने किस से, जब रणभूमि है सुनसान,
कुछ भी नहीं वहाँ, बस है एक खाली मैदान |

कोई नहीं है, कोई जो दे शाह या मात,
फिर क्यों लगे है, युद्ध यहाँ चढ़ा है परवान |

पूछूं किस से, मेरे दिल में भी कुछ सवाल हैं,
जिन्होंने मचाया है, मेरे तसूव्वर में तूफान |

कौन जाने कौन है साथ, कौन छोड़ देगा साथ,
उनके जाने का डर है साथ, चाहे मान ना मान |

कभी यूँ ही अकेला हूँ अपनों के बीच,
कभी मिलाजुला हूँ भीड़ में, पर सब चेहरे हैं अनजान |

हंसती खिलखिलाती दुनिया है चहुँ ओर कभी,
कभी वीराना है सब तरफ, सब तरफ है सुनसान |

कुछ वक़्त पहले ही आये हो ज़िन्दगी में तुम,
अपने से लगते हो, ना जाने कब की है पहचान |

पता है के हिज़्र सिर्फ मेरे को ही नहीं सताता,
सुलगता है जैसे मेरा दिल, जलते होंगें तेरे भी अरमान|

वाकिफ़ हूँ तुझसे और तेरी पाक फितरत से,
इसलिए तो लगता तेरा दर्द मुझे मेरे दर्द के समान |

बीती है तुम पर भी, कुछ हम जैसी, ये है एहसास,
जैसे मेरे टूटे, जालिमों ने तोड़े तेरे भी दिल के मकान |

वो ग़मगीन लम्हे ना लौटे तुम तक कभी दुबारा,
हो मेरी हर दुआ यूँ कबूल, खुदा तेरा हो यूँ निगेबान |

दिल तो तेरी ख़ुशी चाहेगा, दुआ देगा तुझे,
दोस्त चाहे तू समझे ना समझे, चाहे दे दुश्मन का नाम |

यूँ हंसती खिलखिलाती रहो तुम, दुआ करता है 'नूर',
मेरी ख़ुशी भी बसी है वहीँ, नहीं ढूँढना मुझे पूरा जहान |

1 comments :

Anonymous said...

बीती है तुम पर भी, कुछ हम जैसी, ये है एहसास,
जैसे मेरे टूटे, जालिमों ने तोड़े तेरे भी दिल के मकान |


Bahut khoob !!!

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