Wednesday, March 3, 2010

कशमकश : दूर हूँ या पास


तुम्हारी दोस्ती से ही, ज़िंदगी में एक सुरूर आया है,
काली शब जैसी जिंदगी में, कैसा ये नूर आया है |

अब मिली है तुम्हारी दोस्ती की छाँव,
वरना वक़्त तो हमेशा आग बरसता आया है|

डर है हमें कि तुम इस जहाँ कि भीड़ में न खो जाओ,
जो एक बार खो गया उसको कौन ढूँढ पाया है |

बहुत कुछ बदला, तुम्हारी मेरी जिंदगी में
वक्त ही नाज़ुक था, देखो कैसे मोड़ पर लाया है |

अगर अब कहना ही है,अलविदा तो ये ही सही,
जो होना है, उसको कौन रोक पाया है |

कभी समझा नहीं पाए, किस आग में जलते हैं हम,
तुम हो जब परेशाँ, हमने खुद को परेशाँ पाया है |

क्यूँ लगीं है दिल पर चोटें,
दिल आज तक समझ नहीं पाया है |

जो कभी ना था, और ना ही है तुम्हारा,
उसको कोई कैसे अपना बना पाया है |

खुद को जिंदा रखने की कोशिश ही है,
की दिल ने तेरी राह को अपनाया है |

तुम्हारी मंजिल तक साथ चलने का वादा है,
वादे तो ये शख्स, निभाता आया है |

जब पहुँचो तुम मंजिल खुशियाँ तुमको मिले,
मेरे दिले नादाँ का क्या, ये तो तन्हा ही चलता आया है |

0 comments :

Post a Comment