Monday, April 11, 2011

सच हो या सपना




वो मुक्त आकाश में पंछी स्वछंद
मेरी मित्र वो मेरे दिल की पसंद

जैसे हो ह्रदय की अविरामी गति
स्वयं राही है, वो स्वयं प्रगति

वो जैसे अधरों पे सजी मुस्कान
अतुल्य है उसका आत्मसम्मान

प्रियजनों की आँखों की चमक
देह उसकी जैसे हीरों की दमक

चाँद की चाँदनी सी शीतल वो
जीवन का स्पंदन, हलचल वो

नहीं है ये कवि की कोई कल्पना
ना मेरी जागती आँखों का सपना

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