Sunday, November 28, 2010

हर क्षण द्वैतता का रण



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क्षत-विक्षत शरशैया पे लेटा भीष्म सा मन में,
और मैं ही लड़ता अजर अमर हरि सा रण में

ये मैं हूँ या कौन जो प्रेमपंख पर बैठा है,
कोई और है या मैं हूँ इस क्रोध भीषण में

व्यथित हो मैंने दूंढा उसे यहाँ वहाँ जाने कहाँ,
दुःख व्यर्थ, वो तो है समाया मेरे हर कण में

चलती हैं जब शवासें उसके ह्रदय स्पंदन से
कैसे होगी ह्रदय की उद्वेलना किसी कारण में

दुःख की काली छाया जब मन पर छा जाती
पाता तुमको मैं उज्व्वल करने वाली किरण में

विरह ताप से पावन होता है अनश्वर होता है
विरह ही प्रेम है, नहीं है ये प्रेमी की शरण में

हर पल छलने को छलावे हैं यहाँ बहुत सारे
राम नहीं पर मारा मारीच हर स्वर्ण हिरण में

काया को पाषाण सा ना जानो नशवर हूँ मैं
मन-कुरुक्षेत्र का अंत अब काया के ही मरण में

वो अद्वैत है एक ही है रूप उसका दूजा नहीं
पर उसके ही अनेकों रूप मिलते ग्रन्थ पुराण में

खुद को दो रूपों में देख अंतर्मन विचलित है
खोजता द्वैत में अद्वैत को हर पल हर क्षण में

मैं क्षत विक्षत शरशैया पर भीष्म सा मन में,
और मैं ही लड़ता अजर अमर हरि सा रण में


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1 comments :

Anonymous said...

i wl write something on it ...lekin let me read it atleast few more times !!! i cant believe that u hv written it ...samajhne do mujhe !!!

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