Wednesday, October 27, 2010

अनकहे लफ्ज़


कभी कुछ तो कह पाऊँ खामोश हूँ कब से,
चुरा ले जाती हो क्यों मेरी नींद यूँ मुझ से

प्यार है बेइन्तेहाँ ये माना है मैंने,
हिम्मत ना जुटा पाया कि कह दूँ तुझ से

कोई ना जाने, हाले दिल जानूँ बस मैं,
चुप हूँ जब से प्यार का एहसास यूँ तुझ से

ये गम,ये जुदाई कुछ भी नहीं जाने जाँ,
इक तेरी खामोशी जो चैन चुराए यूँ मुझ से

काश ऐसा हो कभी तू खुद आये मेरे करीब,
कहे इश्क-ओ-मोहब्बत के लफ्ज़ यूँ मुझ से

कभी तो हो खुदा हम पर मेहरबान इतना,
खुश हों हम, जुदाई के लम्हे दूर यूँ हम से

1 comments :

sanjeev kumar said...

जिससे मेरा घर जला था बो माचिस की एक छोटी सी तीली थी
आज भी उसके इंतजार मे बैठा हूँ, नाज़ुक सी बो जो काली थी
सारा दिन उसके पीछे-पीछे घुमा था सुबह जब बो घर से चली थी
आज कहते हैं प्यार है उससे, आपको भी मेरी ही दिलरुबा मिली थी

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