परदेस में बैठ कर, मेरा देश और अपना लगता है,
कभी सपनों को पूरा करना भी, एक सपना लगता है |
आये इतनी दूर यहाँ, कागज के टुकड़ों के खातिर,
खुद का जीवन, अब शाख से टूटा एक पत्ता लगता है |
खुद की आस, खुद की प्यास ना जाने कहाँ खो गयी,
चंद सिक्कों की भूख का असर दिल पे छाया लगता है |
कभी जिनके बिना ये जिंदगी अधूरी सी लगती थी,
उन रिश्तों का वो अपनापन, जाने क्यूँ पराया लगता है |
बंध गया हूँ खुद में यूँ, चक्रव्यूह है चहुँ ओर मेरे,
निकल पाना जैसे यहाँ से, अब जीवन का अंत लगता है |
अपनी ही क़ैद में था अब तलक, आज़ादी सपना था,
आया है जो यहाँ निज़ात दिलाने, वो तेरा साया लगता है |
4 comments :
Wah Wah---B'ful--Lafjo me aati yaad ko badi khoobsurti se pesh kiya hai boss---
Vaise--
sach kahe toh, badalti rutt me chhuti jaffa sadaa suhaani lagti hai....
Bandhi doriyo(threads) me, khinchne se aayi kasaavat najar aati hai--
Very Nice one !!!!!!!!
कागज के टुकड़ों के खातिर
Nice .....
Poem's awesome..
just too mature thoughts for a young person like you. go get a gal and get laid :P
then you'll feel something else..
hahahahaaaaaaaaaaaa
*just kidding*
keep up the good work ;)
Ati Uttam :)
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