क्षत-विक्षत शरशैया पे लेटा भीष्म सा मन में,
और मैं ही लड़ता अजर अमर हरि सा रण में ये मैं हूँ या कौन जो प्रेमपंख पर बैठा है,
कोई और है या मैं हूँ इस क्रोध भीषण में
व्यथित हो मैंने दूंढा उसे यहाँ वहाँ जाने कहाँ,
दुःख व्यर्थ, वो तो है समाया मेरे हर कण में